गणतंत्र जिसमें सेनसेक्स है, जिसमें मरते किसानों का विदर्भ है। गणतंत्र, जिसमें किसानों का सिंगूर है। गणतंत्र जिसमें महंगी कारों के किस्से हैं। गणतंत्र जिसमें ना कितने हिस्से हैं।
बहुत आसान सा वक्त था, वह पचास-साठ के दशक का, सत्तर के दशक का। चीजें एकदम ब्लैक एंड व्हाईट थीं। पचास-साठ के दशक के अखबारों को देखें, गणतंत्र दिवस के आसपास के आयोजनों को देखें, तो देश विकट आदर्शवाद की लपेटे में दिखता था।
समाजवाद आया ही चाहता है, बस समाजवाद आ ही लिया। सब बराबर, सब समान, बड़े सपने, राजकपूर की शुरुआती रुमानियत का दौर। अमीर बदमाश है, गरीब ईमानदार है। गरीब एक दिन सबको टेकओवर कर लेगा। कोई दुविधा नहीं।
सत्तर के दशक तक कमोबेश यह सब चल गया। फिर ब्लैक एंड व्हाईट में कुछ भी नहीं रहा। जो ब्लैक है, वह कुछ व्हाईट भी है। जो व्हाईट है, उसके ब्लैक होने के किस्से भी हैं।
मिक्सिंग इतनी है कि साफ समझना मुश्किल है।
2008 के आसपास का गणतंत्र इतना कनफ्यूजिंग हो गया है कि कौन कहां है, समझना मुश्किल है। नारायण मूर्ति पूंजीपति होते हुए भी दोहरे स्टैंडर्ड नहीं रखते। सीपीएम वाले नंदीग्राम के बाद पूंजीपतियों के बेहद घटिया एजेंट लगते हैं। एक हाथ में क्रांति का झंडा, दूसरे हाथ में किसानों को मारता हाथ। 2008 के गणतंत्र में भद्दा ही नहीं, अश्लील लगता है कई बार।
उम्मीदों का गणतंत्र जैसे बीपीओ काल सेंटर में दिखता है। कम उम्र में बड़ी आय। पच्चीस साल की उम्र में कार, मकान सब कुछ। इतना कुछ इतना कुछ कि सपनों में अब बड़ी कार से कम कुछ नहीं समाता। पर विकट बेरुखी का यह हाल यह है कि विदर्भ कहां है, इन्हे नहीं मालूम। उम्मीदें सपनों में तबदील होती हैं। सपने इतने बड़े हो जाते हैं कि कई छोटी चीजें छूट जाती हैं। अब सपने अमेरिका से जुड़ते हैं। बहुत कुछ यहां छूट जाता है। उसके लिए अब किसी को कुछ सालता भी नहीं है। सेनसेक्स, सेक्स और मल्टीप्लेक्स-बहुत कुछ इस सब के इर्द गिर्द घूम रहा है।
आईआईटी से हैं वो, आईआईएम से हैं, और ना जाने कहां कहां से हैं वो, पर सारी कहानी सेनसेक्स, सेक्स और मल्टीप्लेक्स के इर्द गिर्द ही है। राष्ट्र निर्माण से चले थे, अब माल निर्माण और मल्टीप्लेक्स निर्माण पर फोकस हो गये हैं।
बुरा नहीं है, पर यह अच्छा भी कितना है, इसका पता नहीं है। पर इससे भी ज्यादा बड़ा सवाल यह है कि कोई विकल्प भी है या नहीं। 2008 के गणतंत्र में विकल्प या तो गायब है, या वह खुद भी एक दुकान है। दुकान अब विकट प्रतीक है। दुकान सिर्फ दुकान तक सीमित नहीं है। मार्केटिंग सिर्फ साबुन, तेल तक सीमित नहीं है। पूंजीवाद तो बाजार पर ही चल रहा है। समाजवाद का भी एक विकट बाजार है। गांधीवाद का बाजार है। खादी जितनी इंटरनेशनल सेमिनारों में जा रही है, उतना तो शायद ही और कोई ड्रेस जाती हो। पर्यावरणवाद विकट बाजार है। बाजार ही बाजार, मिल तो लें। बाल श्रमिकों पर काम करने वाले इधर महंगी कारों पर डिस्कशन करते हैं। मोटी रकम स्विटजरलैंड से आती है। दुकानें इधर भी हैं, दुकानें उधर भी हैं। कबिरा खड़ा बाजार में। इससे ज्यादा सच कुछ नहीं है अब। सब तरफ बाजार है। बाजार का विकल्प भी बाजार से ही होकर जाता है, 2008 का गणतंत्र तो यही बताता है।