Tuesday 27 January, 2009

सूफी परम्परा में बसंत

बसंत पंचमी की प्रथा को मुस्लिम समाज में प्रचलित कराने में सूफी संतो ने बड़ा हाथ रहा है। मुग़ल काल के आते आते, बसंत पंचमी सूफी संतों की दरगाहों पर मनाया जाने वाला एक बेहद लोकप्रिय उत्सव बन गया था। निजामुद्दीन औलिया, ख्वाजा बख्तियार काकी और अमीर खुसरो की दरगाहों पर बसंत के मनाये जाने के प्रमाण मिलते हैं। खुसरो ने तो बसंत पर अनेक छंदों की भी रचना की हैं:

ऐसा माना जाता है की चिश्ती सूफियों में बसंत मनाने की परम्परा १२वी शताब्दी से ही शुरू हो गयी थी। कहा जाता है कि दिल्ली के सूफी संत निजामुद्दीन औलिया अपने भांजे ताकिउद्दीन नूह की मौत से इतने रुसवा हुए कि उन्होंने अपने आपको दो महीने के लिए दीन दुनिया से अलग कर लिया। वो अपना समय या तो बंद कमरों में या अपने भांजे की मजार पर बिताने लगे। ऐसा देख उनके अनुयायी अमीर खुसरो अपने पीर के ग़म को दूर करने के उपाय तलाशने लगे। एक दिन खुसरो को सड़क पर कुछ औरतें आती दिखाई दीं, जो काफ़ी सजी धजी थीं और हाथों में फूल लिए हुए गाते हुए जा रही थीं। खुसरो ने उनसे वज़ह पूछी तो उन्होंने बताया कि आज बसंत पंचमी है और वो अपने भगवान को चढावा चढाने जा रहीं हैं। खुसरो को यह अंदाज़ पसंद आया और उन्होंने यह फैसला किया कि उनके भगवान को भी बसंत का चढावा मिलना चाहिए। जल्द ही वो उन औरतों की तरह तैयार हुए और अपने हाथों में सरसों के कुछ फूल लेकर वही गाने गाते हुए उस मजार पर जा पहुंचे जहाँ पीर अकेले बैठे थे। निजामुद्दीन औलिया को कुछ औरतें आती हुई दिखाई दीं पर वो उनमें खुसरो को नहीं पहचान पाये। जब गौर करने पर उन्हें पता चला कि क्या हो रहा है, तो औलिया मुसकुरा पड़े।अन्य सूफियों और औलिया के अनुयायियों को इस दिन का दो महीने से इंतज़ार था। ऐसा होते ही वे सब बसन्त के गीत गाने लगे और प्रतीक के रूप में नूह की मजार पर सरसों के फूल चढाये। कुछ पंक्तियाँ जो शायद उस वक्त कही गयीं होंगी:

सकल बन फूल रही सरसों,
अमवा बोरे, टेसू फूले।
कोयल बोले डार डार, औ गोरी करत सिंगार।
मलिनियाँ गरवा ले आयी करसों
सकल बन फूल रही सरसों

इस पूरे वाकये का असर यह रहा कि बसंत का उत्सव निजामुद्दीन औलिया कि खानेकाह में सालाना जलसे की तरह मनाया जाने लगा। धीरे धीरे यह उत्सव चिश्ती सम्प्रदाय के और केन्द्रों में भी काफी प्रसिध्ध हो गया। इन दरगाहों और खानेकाहों से जुड़ी स्थानीय मुस्लिम जनता भी इस उत्सव में जुड़ने लगी। मुग़ल काल के आते आते यह उत्सव एक सार्वजानिक जलसे के रूप में मनाया जाने लगा था।

(अभी इस विषय पर और भी जानकारी इकठ्ठी कर रहा हूँ। मिलने पर इस पोस्ट को फिर संपादित करूंगा।)

Monday 26 January, 2009

लाहौरी बसंत



पंजाब की ऐतिहासिक राजधानी होने के नाते, बसंत पंचमी लाहौर में काफी धूम धाम से मनाई जाती रही है। यहाँ तक इस त्यौहार को सरकारी सहायता और बहुराष्ट्रीय कंपनियों का सहयोग भी मिलता रहा है। दुनिया भर में बसंत पंचमी को मनाया जाने वाला पतंग महोत्सव काफी प्रसिध्ध है । पिछले कुछ सालों में इस त्यौहार पर पाबंदियां लगाने की मुहीम चल रही है। कारण पतंगबाजी के दौरान होने वाले झगडे जिनमें अकसर खून खराबा हो जाता है। अकसर पतंगों के माझों से बिजली के तार कट जाते हैं, और लोगों के छतों पर से गिरने की शिकायतें आती हैं। हालांकी सरकारों ने इस दिन होने वाली पतंगबाजी को पूरी तरह से प्रतिबंधित नहीं किया है लेकिन, कुछ पाबंदियां ज़रूर लगाई गयी है।

Sunday 25 January, 2009

गणतंत्र खड़ा बाजार में [ व्यंग्य] - आलोक पुराणिक

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गणतंत्र जिसमें सेनसेक्स है, जिसमें मरते किसानों का विदर्भ है। गणतंत्र, जिसमें किसानों का सिंगूर है। गणतंत्र जिसमें महंगी कारों के किस्से हैं। गणतंत्र जिसमें ना कितने हिस्से हैं।

बहुत आसान सा वक्त था, वह पचास-साठ के दशक का, सत्तर के दशक का। चीजें एकदम ब्लैक एंड व्हाईट थीं। पचास-साठ के दशक के अखबारों को देखें, गणतंत्र दिवस के आसपास के आयोजनों को देखें, तो देश विकट आदर्शवाद की लपेटे में दिखता था।

समाजवाद आया ही चाहता है, बस समाजवाद आ ही लिया। सब बराबर, सब समान, बड़े सपने, राजकपूर की शुरुआती रुमानियत का दौर। अमीर बदमाश है, गरीब ईमानदार है। गरीब एक दिन सबको टेकओवर कर लेगा। कोई दुविधा नहीं।

सत्तर के दशक तक कमोबेश यह सब चल गया। फिर ब्लैक एंड व्हाईट में कुछ भी नहीं रहा। जो ब्लैक है, वह कुछ व्हाईट भी है। जो व्हाईट है, उसके ब्लैक होने के किस्से भी हैं।
मिक्सिंग इतनी है कि साफ समझना मुश्किल है।

2008 के आसपास का गणतंत्र इतना कनफ्यूजिंग हो गया है कि कौन कहां है, समझना मुश्किल है। नारायण मूर्ति पूंजीपति होते हुए भी दोहरे स्टैंडर्ड नहीं रखते। सीपीएम वाले नंदीग्राम के बाद पूंजीपतियों के बेहद घटिया एजेंट लगते हैं। एक हाथ में क्रांति का झंडा, दूसरे हाथ में किसानों को मारता हाथ। 2008 के गणतंत्र में भद्दा ही नहीं, अश्लील लगता है कई बार।

उम्मीदों का गणतंत्र जैसे बीपीओ काल सेंटर में दिखता है। कम उम्र में बड़ी आय। पच्चीस साल की उम्र में कार, मकान सब कुछ। इतना कुछ इतना कुछ कि सपनों में अब बड़ी कार से कम कुछ नहीं समाता। पर विकट बेरुखी का यह हाल यह है कि विदर्भ कहां है, इन्हे नहीं मालूम। उम्मीदें सपनों में तबदील होती हैं। सपने इतने बड़े हो जाते हैं कि कई छोटी चीजें छूट जाती हैं। अब सपने अमेरिका से जुड़ते हैं। बहुत कुछ यहां छूट जाता है। उसके लिए अब किसी को कुछ सालता भी नहीं है। सेनसेक्स, सेक्स और मल्टीप्लेक्स-बहुत कुछ इस सब के इर्द गिर्द घूम रहा है।

आईआईटी से हैं वो, आईआईएम से हैं, और ना जाने कहां कहां से हैं वो, पर सारी कहानी सेनसेक्स, सेक्स और मल्टीप्लेक्स के इर्द गिर्द ही है। राष्ट्र निर्माण से चले थे, अब माल निर्माण और मल्टीप्लेक्स निर्माण पर फोकस हो गये हैं।

बुरा नहीं है, पर यह अच्छा भी कितना है, इसका पता नहीं है। पर इससे भी ज्यादा बड़ा सवाल यह है कि कोई विकल्प भी है या नहीं। 2008 के गणतंत्र में विकल्प या तो गायब है, या वह खुद भी एक दुकान है। दुकान अब विकट प्रतीक है। दुकान सिर्फ दुकान तक सीमित नहीं है। मार्केटिंग सिर्फ साबुन, तेल तक सीमित नहीं है। पूंजीवाद तो बाजार पर ही चल रहा है। समाजवाद का भी एक विकट बाजार है। गांधीवाद का बाजार है। खादी जितनी इंटरनेशनल सेमिनारों में जा रही है, उतना तो शायद ही और कोई ड्रेस जाती हो। पर्यावरणवाद विकट बाजार है। बाजार ही बाजार, मिल तो लें। बाल श्रमिकों पर काम करने वाले इधर महंगी कारों पर डिस्कशन करते हैं। मोटी रकम स्विटजरलैंड से आती है। दुकानें इधर भी हैं, दुकानें उधर भी हैं। कबिरा खड़ा बाजार में। इससे ज्यादा सच कुछ नहीं है अब। सब तरफ बाजार है। बाजार का विकल्प भी बाजार से ही होकर जाता है, 2008 का गणतंत्र तो यही बताता है।

Saturday 24 January, 2009

ब्लॉग के मायने

आज कुछ ऐसी ही एक चर्चा हुई, जिस पर लिखना ज़रूरी समझता हूँ। किसी ने पूछा कि ब्लॉग बनाने की क्या ज़रूरत है। क्या ज़रूरत है की किसी को अपने विचार बताये ही जाएँ। अमित जी, जिन्होंने अविरत यात्रा प्रयास कि शुरुआत की है, का कहना था, कि इसके चार उद्देश्य हो सकते हैं। पहला उद्देश्य नितांत स्वान्तः सुखाय- मुझे लिखना है, चाहे कोई पढ़े या ना पढ़े। दूसरा- लोग पढ़ें और शाबाशी दें। अमित जी का मानना है कि ज्यादातर हमारा उद्देश्य पहला या दूसरा ही होता है। बात उसके आगे नहीं बढती है। तीसरा- और हमारी बातों को पढ़े, और उसमें परिवर्तन हो या ऐसा कहें की उसमें यदि परिवर्तन कर सकने का सामर्थ्य हो तो वह परिवर्तन करने के लिए कोई बढे। चौथा कि शायद जो परिवर्तन हम चाहते हैं, उसके लिए एक अकेले हम काफी न हों एक कारवाँ की ज़रूरत हो।

उदाहरण भी सटीक ही दिया'रंग दे बसंती' बना लेना और उस पर वाहवाही बटोर लेना शायद कोई बड़ी बात ना हो। पर हाँ अगर अपनी अभिव्यक्ति से किसी को एक भ्रष्ट रक्षा मंत्री को मार देने को प्रेरित कर दिया या रक्षा मंत्री ही बना दिया तो एक प्रकार की संतुष्टी मिल सकती है।


लेकिन इस ब्लॉग पर तो हम किसी को मारने को कह नहीं रहें हैं, तो उद्देश्य क्या हो सकता है? एक उद्देश्य तो संकलन का रहा- यह स्वान्तः सुखाय भी हो सकता है, और इसलिए भी कि ऐसे लोग जिनकी रूचि परम्पराओं या अध्यात्म में है, उन्हें उनके लायक कुछ मिल सके। और दूसरा उद्देश्य संवाद स्थापित करना है - ऐसे लोगों के बीच में जो पारंपरिक हैं और जो पारंपरिक नहीं हैं, अध्यात्मिक हैं और जो अध्यात्मिक नहीं है।अगर कहीं एक में कुछ कमी है तो शायद दूसरे से पूरी हो जाए। सहयोग मिले तो शायद कारवां ही बन जाए। अगर सुझाव हों तो abhishektripathi@aviratyatra.in पर लिखें



गणतंत्र दिवस (२६ जनवरी )

गणतंत्र दिवस के बारे में
एक महात्मा जी से एक बार मैंने राजनीति में आने की अपनी इच्छा व्यक्त की, तो उन्होंने मुझसे कहा कि मैं क्यों इस पचडे में पड़ना चाहता हूँ। जब मैंने महात्मा जी से कहा कि जब ईमानदार लोग राजनीति में आयेंगे नहीं तो बेईमान तो कब्जा जमायेंगे ही। महात्मा जी ने जवाब दिया कि गूंगी, पंगु और असहाय जनता जब नेताओं को चुनेगी तो बेईमानों का ही तो बोलबाला होगा। राजशाही में तो राजा राजधर्म में दक्ष रहते थे, जन्म से ही राजधर्म की शिक्षा दी जाती थी। फैसले सर्वहित और न्याय कि कसौटी पर लिए जाते थे, इस पर नहीं कि चुनावों में उसका क्या असर पड़ेगा। और इतने पर अगर राजा निरंकुश हो जाए तो? महात्मा जी का मानना था कि जनता ऐसे राजा को उठा फेंकेगी। मतलब, वीटो जनता के हाथ में।

इस चर्चा के बाद एक बार सोच में ज़रूर पड़ गया था, कि कहीं ऐसा तो नहीं कि लोकतंत्र में हमारी मान्यता केवल रुढिवादी ही तो नहीं। आज के नेताओं का राजधर्म से दूर का वास्ता भी नहीं है। धर्म का निर्धारण न्याय कि अवधारणा से नहीं पर वोट की संख्या से होता है। और जनता भी चुनती उन्हीं को जो धनबल और बाहुबल से समृध्ध हो, चरित्रबल प्रायः अयोग्यता मानी जाती है।

ऐसे में यह मान लेना कि लोकतंत्र ही सबसे वाजिब शासन व्यवस्था है, क्या एक रुढिवादी मान्यता ही नहीं? वैसे भी लोकतंत्र का इतिहास बहुत पुराना नहीं है। अभी ३०० साल ही तो हैं। और अगर लोकतंत्र वास्तव में शासन की सबसे विकसित व्यवस्था है, तो शासन करने वाली जनता अपने वीटो का इस्तेमाल क्यों नहीं करती? जनता खामोश क्यों है? आज के गणतंत्र दिवस पर गणतंत्र की ही मान्यता पर विचार करते हैं।

Sunday 18 January, 2009

माघ पूर्णिमा

अभी परम्पराओं और मान्यताओं के संकलन प्रक्रिया में हूँ. कोशिश रहेगी कि ९ फ़रवरी तक कुछ लिख सकूँ.

बसंत पंचमी

कुछ नया लिखने के पूर्व, जो लिखा लिखाया है वही प्रस्तुत करता हूँ...
विकिपीडिया से
बसंत साहित्य
अभी परम्पराओं और मान्यताओं के संकलन प्रक्रिया में हूँ. कोशिश रहेगी कि 30 जनवरी तक कुछ लिख सकूँ.

सोमवती अमावस्या (२६ जनवरी २००९)

सोमवार को पड़ने वाली अमावस्या को सोमवती अमावस्या कहा जाता है. विवाहित स्त्रियों द्वारा इस दिन अपने पतियों के दीर्घायु कामना के लिए व्रत का विधान है. कुछ परम्पराओं में इस दिन विवाहित स्त्रियों द्वारा पीपल के वृक्ष की दूध, जल, पुष्प, अक्षत, चन्दन इत्यादि से पूजा और वृक्ष के चारों ओर १०८ बार धागा लपेट कर परिक्रमा करने का विधान है.

कुछ एक अन्य परम्पराओं में भँवरी देने का विधान है. धान, पान और खड़ी हल्दी को मिला कर उसे विधान पूर्वक तुलसी के पेड़ को चढाया जाता है.

इस दिन पवित्र नदियों में स्नान का भी विशेष महत्व समझा जाता है. कहा जाता है कि महाभारत में भीष्म ने युधिस्ठिर को इस दिन का महत्व समझाते हुए कहा था कि, इस दिन पवित्र नदियों में स्नान करने वाला मनुष्य समृद्ध, स्वस्थ्य और सभी दुखों से मुक्त होगा. ऐसा भी माना जाता है कि स्नान करने से पितरों कि आत्माओं को शांति मिलती है.

सोमवती अमावस्या कथा (१)

सोमवती अमावस्या से सम्बंधित अनेक कथाएँ प्रचलित हैं। परंपरा है कि सोमवती अमावस्या के दिन इन कथाओं को विधिपूर्वक सुना जाता है। उत्तर प्रदेश और बिहार में प्रचलित इन्हीं कथाओं में से एक कथा आगरा में रहने वाली श्रीमती नीलम मिश्र ने हमारे साथ बाँटनें के लिए भेजी है। भोजपुरी में कही जाने वाली इस कथा को हमने खड़ी बोली में लिखने कि कोशिश की है।

"एक गरीब ब्रह्मण परिवार था, जिसमे पति, पत्नी के अलावा एक पुत्री भी थी। पुत्री धीरे धीरे बड़ी होने लगी. उस लड़की में समय के साथ सभी स्त्रियोचित गुणों का विकास हो रहा था। लड़की सुन्दर, संस्कारवान एवं गुणवान भी थी, लेकिन गरीब होने के कारण उसका विवाह नहीं हो पा रहा था. एक दिन ब्रह्मण के घर एक साधू पधारे, जो कि कन्या के सेवाभाव से काफी प्रसन्न हुए। कन्या को लम्बी आयु का आशीर्वाद देते हुए साधू ने कहा की कन्या के हथेली में विवाह योग्य रेखा नहीं है। ब्राह्मण दम्पति ने साधू से उपाय पूछा कि कन्या ऐसा क्या करे की उसके हाथ में विवाह योग बन जाए। साधू ने कुछ देर विचार करने के बाद अपनी अंतर्दृष्टि से ध्यान करके बताया कि कुछ दूरी पर एक गाँव में सोना नाम की धूबी जाती की एक महिला अपने बेटे और बहू के साथ रहती है, जो की बहुत ही आचार- विचार और संस्कार संपन्न तथा पति परायण है। यदि यह कन्या उसकी सेवा करे और वह महिला इसकी शादी में अपने मांग का सिन्दूर लगा दे, उसके बाद इस कन्या का विवाह हो तो इस कन्या का वैधव्य योग मिट सकता है। साधू ने यह भी बताया कि वह महिला कहीं आती जाती नहीं है। यह बात सुनकर ब्रह्मणि ने अपनी बेटी से धोबिन कि सेवा करने कि बात कही।

कन्या तडके ही उठ कर सोना धोबिन के घर जाकर, सफाई और अन्य सारे करके अपने घर वापस आ जाती। सोना धोबिन अपनी बहू से पूछती है कि तुम तो तडके ही उठकर सारे काम कर लेती हो और पता भी नहीं चलता। बहू ने कहा कि माँजी मैंने तो सोचा कि आप ही सुबह उठकर सारे काम ख़ुद ही ख़तम कर लेती हैं। मैं तो देर से उठती हूँ। इस पर दोनों सास बहू निगरानी करने करने लगी कि कौन है जो तडके ही घर का सारा काम करके चला जाता हा। कई दिनों के बाद धोबिन ने देखा कि एक एक कन्या मुँह अंधेरे घर में आती है और सारे काम करने के बाद चली जाती है। जब वह जाने लगी तो सोना धोबिन उसके पैरों पर गिर पड़ी, पूछने लगी कि आप कौन है और इस तरह छुपकर मेरे घर की चाकरी क्यों करती हैं। तब कन्या ने साधू द्बारा कही गई साड़ी बात बताई। सोना धोबिन पति परायण थी, उसमें तेज था। वह तैयार हो गई। सोना धोबिन के पति थोड़ा अस्वस्थ थे। उसमे अपनी बहू से अपने लौट आने तक घर पर ही रहने को कहा। सोना धोबिन ने जैसे ही अपने मांग का सिन्दूर कन्या की मांग में लगाया, उसके पति गया। उसे इस बात का पता चल गया। वह घर से निराजल ही चली थी, यह सोचकर की रास्ते में कहीं पीपल का पेड़ मिलेगा तो उसे भँवरी देकर और उसकी परिक्रमा करके ही जल ग्रहण करेगी.उस दिन सोमवती अमावस्या थी। ब्रह्मण के घर मिले पूए- पकवान की जगह उसने ईंट के टुकडों से १०८ बार भँवरी देकर १०८ बार पीपल के पेड़ की परिक्रमा की, और उसके बाद जल ग्रहण किया। ऐसा करते ही उसके पति के मुर्दा शरीर में कम्पन होने लगा।

पीपल के पेड़ में सभी देवों का वास होता है। अतः, सोमवती अमावस्या के दिन से शुरू करके जो व्यक्ति हर अमावस्या के दिन भँवरी देता है, उसके सुख और सौभग्य में वृद्धि होती है। जो हर अमावस्या को न कर सके, वह सोमवार को पड़ने वाली अमावस्या के दिन १०८ वस्तुओं कि भँवरी देकर सोना धोबिन और गौरी-गणेश कि पूजा करता है, उसे अखंड सौभाग्य की प्राप्ति होती है।

ऐसी परम्परा है कि पहली सोमवती अमावस्या के दिन धान, पान, हल्दी, सिन्दूर और सुपाड़ी की भँवरी दी जाती है। उसके बाद की सोमवती अमावस्या को अपने सामर्थ्य के हिसाब से फल, मिठाई, सुहाग सामग्री, खाने कि सामग्री इत्यादि की भँवरी दी जाती है। भँवरी पर चढाया गया सामान किसी सुपात्र ब्रह्मण, ननद या भांजे को दिया जा सकता है। अपने गोत्र या अपने से निम्न गोत्र में वह दान नहीं देना चाहिए।

अभी यह पोस्ट अधूरा है. कोशिश रहेगी कि २६ जनवरी के पहले पूरा हो जाए.

मान्यताओं पर बहस

गाहे बगाहे अक्सर ही परम्पराओं से हमारी मुठभेड़ होती ही रहती है. ऐसा नहीं की इसमें कुछ नया है. मेरे ख्याल से बदलते परिवेश ने हमेशा ही स्थापित मान्यताओं की अहमितयत को चुनौती दी है. अक्सर ही होता है की व्यक्तिगत मान्यताएं सामाजिक मान्यताओं से लड़ बैठती हैं. स्थिति और भी विकट हो सकती है जब दो सामाजिक मान्यताओं में ही मतभेद हो. सवाल उठता है कि क्या करें? तर्क -वितर्क अकसर निरर्थक ही सिद्ध होते हैं. मान्यताओं के समर्थको का कहना होता है कि मान्यताओं का विज्ञान केवल तर्क मात्र से थोड़े ही चलता है. उसके तो अलग ही नियम हैं. इस तर्क में दम तो है. तर्क करने वालों से उनकी ही मान्यताओं का आधार पूछें, तो जवाब शायद उनके पास भी न हो. लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं की हम तर्क ही छोड़ दें? तो यही रहा आज की चर्चा का विषय. मान्यताओं पर बहस कहाँ तक जायज़ है? कोशिश रहेगी ऐसी मान्यताओं को चर्चा का विषय बनाने की जहाँ टकराव दीखता है.

बस इतना ही नहीं, आने वाले कुछ दिनों में कोशिश करूंगा की हमारे समाज में व्याप्त मान्यताओं का निरपेक्ष संकलन कर सकूँ. मान्यताएं जो परम्पराओं से जुड़ी हैं, मान्यताएं जो त्योहारों से जुड़ी हैं, मान्यताएं जो दिन प्रतिदिन के व्यवहार से जुड़ी हैं, मान्यताएं जिनका आधार धार्मिक या पंथ विशेष से है और मान्यताएं जो पंथनिरपेक्ष हैं. सुझावों और सहयोग की अपेक्षा है.