Sunday 8 February, 2009

सच्चिदानंद का साक्षात्कार ही है महाशिवरात्रि —मनोहर पुरी

अपने भीतर स्थित शिव को जानने का महापर्व है महाशिवरात्रि। वैसे तो प्रत्येक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को शिवरात्रि होती है पर फाल्गुन मास की कृष्ण पक्ष की शिवरात्रि का विशेष महत्व होने के कारण ही उसे महाशिवरात्रि कहा गया है। यह भगवान शिव की विराट दिव्यता का महापर्व है। भारतीय शास्त्र के अनुसार शिव अनंत हैं। शिव की अनंतता भी अनंत है। मानव जब सभी प्रकार के बंधनों और सम्मोहनों से मुक्त हो जाता है तो स्वयं शिव के समान हो जाता है। समस्त भौतिक बंधनों से मुक्ति होने पर ही मनुष्य को शिवत्व प्राप्त होता है। शिव और शिवत्व की दिव्यता को जान लेने का महापर्व है महाशिवरात्रि।

इस पवित्र दिन शिव भक्त पूजा एवं उपवास करते हैं। शिव मंदिरों को भव्यता के साथ सजाया जाता है। महादेव जी की बहु विधि पूजा अर्चना की जाती है। पूरा दिन लोग निराहार रहकर उपवास करते हैं। इस दिन काले तिल पानी में डाल कर स्नान करने के पश्चात भगवान शंकर की पूजा का विधान बताया गया है। शिवलिंग पर जल, दूध, बेलपत्र, कनेर और मौल श्री के पत्ते अर्पित करके पूजा की जाती है। लोग रात्रि जागरण करके शिव का भजन पूजन करते हैं और अगले दिन शिव जी को जल का अर्घ्य प्रदान कर उपवास खोला जाता है। इस दिन विष्णु पुराण का पाठ भी किया जाता हैं। शिव भक्तों की मान्यता है कि जो व्यक्ति निरंतर चौदह वर्ष तक अन्न जल रहित इस व्रत का पालन करता है तो उसकी अनेक पीढ़ियों के समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं और उनको स्वर्ग की प्राप्ति होती है। शिव अर्चना को मोक्ष प्राप्त करने वाला सबसे सरल मार्ग माना गया है।

शिवरात्रि को शिव पार्वती के विवाह की रात्रि भी माना जाता है। दार्शनिक इसे पुरुष एवं प्रकृति के मिलन की रात्रि मान कर इस दिवस को सृष्टि का प्रारंभ मानते हैं। इसे आसुरी शक्तियों पर विजय प्राप्त करने के लिए शिव एवं शक्ति का योग भी कहा गया है। शिव की पूजा के संबंध में एक प्रचलित धारणा यह है कि एक बार ब्रह्मा जी एवं विष्णु जी में यह विवाद छिड़ गया कि दोनों में श्रेष्ठ कौन है। ब्रह्मा जी सृष्टि के रचयिता होने के कारण श्रेष्ठ होने का दावा कर रहे थे और भगवान विष्णु पूरी सृष्टि के पालन कर्ता के रूप में स्वयं को श्रेष्ठ कह रहे थे। जब वह विवाद अपने चरम पर पहुँचा तो अचानक एक विराट ज्योतिर्मय लिंग अपनी संपूर्ण भव्यता के साथ वहाँ प्रकट हुआ। उसका कोई और छोर दिखाई नहीं दे रहा था। सर्वानुमति से यह निश्चय किया गया कि जो इस महान ज्योतिर्मय लिंग के छोर का पहले पता लगाएगा उसे ही श्रेष्ठ माना जाएगा। अत: दोनों विपरीत दिशा में शिवलिंग की जानकारी प्राप्त करने के लिए निकल पड़े। बहुत लंबे समय तक विष्णु जी कुछ भी खोज पाने में असमर्थ रहे और लौट आए। ब्रह्मा जी भी इस कार्य में सफल नहीं हुए परंतु उन्होंने कहा कि वह छोर तक पहुँच गए थे। मार्ग से उन्होंने केतकी के फूल को साक्षी के रूप में साथ ले लिया था। ब्रह्मा जी के असत्य कहने पर स्वयं शिव वहाँ प्रकट हुए और उन्होंने ब्रह्मा जी की इसके लिए आलोचना की। दोनों देवताओं ने महादेव की स्तुति की तब शिव जी बोले कि मैं ही सृष्टि का कारण, उत्पत्तिकर्ता और स्वामी हूँ। मैंने ही तुम दोनों को उत्पन्न किया है अत: तुम दोनों भी मुझ से भिन्न नहीं हो। शिव ने केतकी पुष्प को झूठी साक्षी देने के लिए दंडित करते हुए कहा कि यह पुष्प मेरी पूजा में प्रयुक्त नहीं किया जा सकेगा। उसी काल से शिवलिंग की पूजा एवं महाशिवरात्रि का पर्व प्रारंभ हुआ माना जाता है।

शिवलिंग की पूजा का अर्थ है कि समस्त विकारों और वासनाओं से रहित रह कर मन को निर्मल बनाना। वायु पुराण के अनुसार प्रलयकाल में समस्त सृष्टि जिसमें लीन हो जाती है और पुन: सृष्टिकाल में जिससे प्रकट होती है, उसे लिंग कहते हैं। इस प्रकार विश्व की संपूर्ण ऊर्जा ही लिंग की प्रतीक है। शिव पुराण में भगवान स्वयं कहते हैं, 'प्रलय काल आने पर जब चराचर जगत नष्ट हो जाता है और समस्त प्रपंच प्रकृति में विलीन हो जाता है, तब मैं अकेला ही स्थित रहता हूँ। दूसरा कोई नहीं रहता। सभी देवता और शास्त्र पंचाक्षर मंत्र में स्थित होते हैं। अत: मेरे से पालित होने के कारण वे नष्ट नहीं होते। तदनंतर मुझसे प्रकृति और पुरुष के भेद से युक्त सृष्टि होती है, वस्तुत: यह संपूर्ण सृष्टि बिंदुनाद स्वरूप है। बिंदु शक्ति है और नाद शिव। इस तरह यह विश्व शक्ति स्वरूप ही है। नाद बिंदु का और बिंदु इस जगत का आधार है। यह शक्ति और शिव संपूर्ण जगत के आधार रूप में स्थित हो। बिंदु और नाद से युक्त सब कुछ शिव है, वही सबका आधार है। आधार में ही आधेय का समावेश या लय होता है। यही वह समष्टि है जिससे सृजन काल में सृष्टि का प्रारंभ होता है। बिंदु एवं नाद अर्थात शक्ति और शिव का संयुक्त रूप ही तो शिवलिंग में अवस्थित है। इसी कारण शिवलिंग की उपासना से ही परमानंद की प्राप्ति संभव है।

भारत ही नहीं विश्व के अन्य अनेक देशों में भी प्राचीन काल से शिव की पूजा होती रही है इसके अनेक प्रमाण समय समय पर प्राप्त हुए हैं। हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की खुदाई में भी ऐसे अवशेष प्राप्त हुए हैं जो शिव पूजा के प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। हमारे समस्त प्राचीन धार्मिक ग्रंथों में भी शिव जी की पूजा की विधियाँ विस्तार से उल्लिखित हैं। शास्त्रों में शिव की शक्ति को रात्रि ही कहा गया है। रात्रि शब्द का अर्थ है जन-मन को अवकाश या उत्सव प्रदान करने वाली। शिव की शक्ति रात्रि ही है जो विश्व के समस्त प्राणियों को अपनी गोद में आराम प्रदान करती है।

ईशान संहिता के अनुसार महाशिवरात्रि को ही ज्योतिर्लिंग का प्रादुर्भाव हुआ। शिव पुराण में ब्रह्मा जी ने कहा है कि संपूर्ण जगत के स्वामी सर्वज्ञ महेश्वर के कान से गुण श्रवण, वाणी से कीर्तन, मन से मनन करना महान साधना माना गया है। इसी लिए महाशिवरात्रि के दिन उपवास, ध्यान, जप, स्नान, दान, कथा श्रवण, प्रसाद एवं अन्य धार्मिक कृत्य करना महाफलदायक होता है। वास्तव में शिव की महिमा अपरंपार है। जिनके कोष में भभूत के अतिरिक्त कुछ नहीं है परंतु वह निरंतर तीनों लोकों का भरण पोषण करने वाले हैं। परम दरिद्र शमशानवासी होकर भी वह समस्त संपदाओं के उद्गम हैं और त्रिलोकी के नाथ हैं। अगाध महासागर की भांति शिव सर्वत्र व्याप्त हैं। वह सर्वेश्वर हैं। अत्यंत भयानक रूप के स्वामी होकर भी स्वयं शिव हैं।

जब भीष्म शरशैरया पर सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा कर रहे थे तो पांडवों ने उनसे शिव महिमा के विषय में जानने की जिज्ञासा की तो उन्होंने उत्तर दिया कि कोई भी देहधारी मानव शिव महिमा बताने में सर्वथा असमर्थ है। भारतीय मनीषियों के अनुसार शिव अव्यक्त हैं और जो कुछ व्यक्त है, वह उसी की शक्ति है, वही उसका व्यक्त रूप है। शिव ही निराकार ब्रह्म हैं। मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, पाँचों ज्ञानेंद्रियों और पाँचों कर्मेंद्रियों पर विजय प्राप्त कर शिव शक्ति की साधना करना ही शिवरात्रि व्रत करना है। शिवरात्रि के जागरण के संदर्भ में वही भावना है जो गीता में जागरण के विषय में व्यक्त की गई है। सामान्य प्राणियों की रात्रि में जोगी जागता है और उनके दिन में जोगी सोता है। इस प्रकार जो पाशबद्ध है उसे मनीषियों ने पशु कहा है अपने परम स्वरूप शिव के अधिक से अधिक निकट पहुँचना ही ''पशुपति`` शिव की उपासना का लक्ष्य है और यही जागरण का महत्व है। रात्रि में जागृत जीवन का कोलाहल नहीं रहता। प्रकृति शांत रहती है। यह अवस्था साधना, मनन और चिंतन के लिए अधिक अनुकूल होती है। उपवास का भी एक अर्थ है 'किसी के समीप रहना। वराह उपनिषद के अनुसार उपवास का अर्थ है जीवात्मा का परमात्मा के समीप रहना। महाशिवरात्रि पर जागरण और उपवास का यही लक्ष्य है।

शिव तनिक-सी सेवा से ही प्रसन्न होकर बड़े से बड़े पापियों का उद्धार करने वाले महादेव हैं। कभी केवल जल चढ़ा देने मात्र से प्रसन्न हो जाते हैं तो कभी बेल पत्र से ही। भले ही पूजा अनजाने में ही हो गई हो वह व्यर्थ नहीं जाती। किसी भी जाति अथवा वर्ण का व्यक्ति उनका भक्त हो सकता है। देव, गंधर्व, राक्षस, किन्नर, नाग, मानव सभी तो उनके आराधक है। हिंदू-अहिंदू में महादेव कोई भेद भाव नहीं करते। शिवलिंग पर तीन पत्ती वाले बेलपत्र और बूंद-बूंद जल का चढ़ाया जाना भी प्रतीकात्मक है। सत, रज और तम तीनों गुणों के रूप में शिव को अर्पित करना उनकी अर्चना है। बूंद-बूंद जल जीवन के एक-एक कण का प्रतीक है। इसका अभिप्राय है कि जीवन का क्षण-क्षण शिव की उपासना को समर्पित होना चाहिए।

शिव तो सर्वस्व देने वाले हैं। विश्व की रक्षार्थ स्वयं विष पान करते हैं। अत्यंत कठिन यात्रा कर गंगा को सिर पर धारण करके मोक्षदायिनी गंगा को धरा पर अवतरित करते हैं। श्रद्धा, आस्था और प्रेम के बदले सब कुछ प्रदान करते हैं। महाशिवरात्रि शिव और पार्वती के वैवाहिक जीवन में प्रवेश का दिन होने के कारण प्रेम का दिन है। यह प्रेम त्याग और आनंद का पर्व है। शिव स्वयं आनंदमय हैं। शिव के समीप ले जा कर सच्चिदानंद का साक्षात्कार करवाने का पर्व ही तो है महाशिवरात्रि।

(अभिव्यक्ति के सौजन्य से)


Monday 2 February, 2009

पुण्य प्रदायिनी माघ पूर्णिमा

माघ मास में में पड़ने वाली पूर्णिमा को स्नान का विशेष महत्व होता है। इलाहाबाद में संगम पर प्रति वर्ष होने वाले पुण्य स्नानों में माघ पूर्णिमा का स्नान एक प्रमुख स्नान है। मान्यताओं के अनुसार इस दिन सूर्योदय से पूर्व जल में भगवान का तेज मौजूद रहता है, देवताओं का यह तेज पाप का शमन करने वाला होता है। इस दिन सूर्योदय से पूर्व जब आकाश में पवित्र तारों का समूह मौजूद हो उस समय नदी में स्नान करने से घोर पाप भी धुल जाते हैं।

माघ पूर्णिमा के विषय में कहा जाता है कि जो व्यक्ति तारों के छुपने के पूर्व स्नान करते हैं उन्हें उत्तम फल की प्राप्ति होती है। जो तारों के छुपने के बाद पर सूर्योदय के पूर्व स्नान करते हैं उन्हें माध्यम फल की प्राप्ति होती। जो सूर्योदय के पश्चात स्नान करते हैं वे इस दिन के उत्तम फल की प्राप्ति से वंचित रह जाते हैं। इसलिए इस दिन शाश्त्रानुकूल आचरण करते हुए तारों के छुपने के पूर्व स्नान करने का विधान है।

इस दिन प्रयाग में स्नान करने से लाख गुणा फल की प्राप्ति होती है, क्योंकि यहां गंगा और यमुना का संगम होता है। गंगा नदी में स्नान करने से हजार गुणा फल की प्राप्ति होती है। अन्य नदियों और तालाबों में स्नान करने से सौ गुणा फल की प्राप्ति होती है। इस पुण्य दिवस पर अगर आप प्रयाग में स्नान नहीं कर पाते हैं तो जहां भी स्नान करें वहां पुण्यदायिनी प्रयाग का मन ही मन ध्यान करके स्नान करना चाहिए।

माघ मास को बत्तीसी पूर्णिमा व्रत भी कहते हैं। शास्त्रों के अनुसार माघी पूर्णिमा के दिन अन्न दान और वस्त्रदान का बड़ा ही महत्व है। इस तिथि को स्नान के पश्चात भगवान विष्णु की पूजा की जाती है।श्री हरि की पूजा के पश्चात यथा संभव अन्नदान किया जाता है अथवा भूखों को भरपेट भोजन कराया जाता है। ब्रह्मणों एवं पुरोहितों को यथा संभव श्रद्धा पूर्वक दान दे उनका आशीर्वाद लिया जाता है। शैव मत को मानने वाले व्यक्ति भगवान शंकर की पूजा करते हैं, जो भक्त शिव और विष्णु के प्रति समदर्शी होते हैं वे शिव और विष्णु दोनों की ही पूजा करते हैं।

इस दिन सुबह स्नान में तिल का प्रयोग किया जाता है। पारंपरिक रूप में यह पूजा सौभाग्य और पुत्र की प्राप्ति के लिए की जाती है। इस दिन भगवान् सत्यनारायण की पूजा कर सत्य नारायण की कथा सुनने का भी विधान है। इस दिन संत रविदास जयंती, श्री ललित और श्री भैरव जयंती भी मनाई जाती है।

माघ स्नान की महिमा- डॉ. शालिनी सक्सेना


मास-महिमा. धर्मशास्त्र के अनुसार स्नान नित्यकर्म माना गया है। नित्य स्नान के अतिरिक्त धर्मशास्त्रीय दृष्टि से मेष, तुला एवं मकर के सूर्य में क्रमश: वैशाख, कार्तिक एवं माघ मास में स्नान का विशेष फल प्राप्त होता है। मकर राशि के सूर्य में पौष शुक्ल एकादशी, पूर्णिमा अथवा अमावस्या से माघ स्नान का प्रारंभ होता है। अधिकांशत: पौष की पूर्णिमा से ही माघ स्नान के प्रारंभ की परंपरा है।
पौष शुक्ल पूर्णिमा से लेकर माघ पूर्णिमा तक माघ स्नान करने का शास्त्रीय विधान है, लेकिन ज्यादातर चंद्रमास के अनुसार ही माघ स्नान का विधान किया गया है -एकादश्यां शुक्लपक्षे पौषमासे समारभेत्।
माघमास में सूर्योदय के समय जल अत्यंत पवित्र होता है और उसमें तीनों प्रकार के पापों के विनाश की शक्ति होती है-माघमासे रटन्त्याप: किंचिदभ्युदिते रवौ।ब्रrाघ्नं वा सुरापं वा कं पतन्तं पुनीमहे॥
इस समय तीर्थजल में स्नान से ब्रrाघाती, शराबी और पतित भी पवित्र हो जाते हैं। जो व्यक्ति माघ मास में प्रात: समय सूर्य की किरणों से संतप्त नदी के प्रवाह में स्नान करता है, वह माता-पिता के वंश की सात-सात पीढ़ियों का उद्धार करके स्वयं देवरूप होकर स्वर्ग जाता है।
स्नान का सवरेत्तम समय अरुणोदय (सूर्योदय से एक घंटा छत्तीस मिनट पूर्व) माना गया है। इस समय स्नान करने वाला देवताओं में पूजित होता है। तारों की छांव में स्नान उत्तम, तारे छिपने पर स्नान मध्यम व सूर्योदय होने पर स्नान अधम कहा गया है।
गर्मजल से स्नान पर छह वर्ष के स्नान का फल मिलता है। बावड़ी में स्नान से बारह वषर्, तालाब में स्नान से २४ वषर्, नदी में इसका चौगुना, महानदी में सौ गुना, महानदी संगम में इससे चौगुना, गंगा में हजार गुना और गंगा-यमुना के संगम में स्नान से लाख गुना स्नान का फल प्राप्त होता है।
माघ स्नान को पुण्यदायी माना गया है। पुराण में लिखा है कि पौषशुक्ल एकादशी से लेकर माघ शुक्ल एकादशी तक, मास भर भूमि पर शयन करें, निराहार रहें और तीनों समय स्नान करें। भोग- विलास त्यागकर तीनों समय भगवान विष्णु का पूजन करना चाहिए। माघ मास में स्नान से यज्ञ का फल प्राप्त होता है। इस मास में प्रयाग स्नान अति श्रेष्ठ माना गया है। इस स्नान से कई जन्मों के पापों का नाश हो जाता है।
यदि प्रयाग में स्नान संभव न हो तो किसी भी तीर्थ में प्रयाग का स्मरण कर स्नान करने से गंगा स्नान का फल प्राप्त होता है। जो पूरे मास स्नान करने में असमर्थ हो वह शुरू के तीन दिन या आखिर के तीन दिन या कोई भी तीन दिन स्नान कर सकता है। यह स्नान विष्णु भगवान को प्रसन्न करने के लिए किया जाता है।
जो मनुष्य माघ में निरंतर भक्ति भाव से स्नान करता है, उसे पौण्डरीक यज्ञ का फल प्राप्त होता है। उसके किए पाप स्नान के जल में चले जाते हैं। विष्णु का पूजन कर व्रती तिल से स्नान, उबटन, होम, तर्पण, दान एवं तिल का भोजन करें। पितरों व देवताओं को मूली नहीं चढ़ानी चाहिए और न ही मूली खानी चाहिए। स्नान करने वाले को आग तापना भी निषेध किया गया है।
अग्नि में होम करना चाहिए तथा प्रतिदिन तिल व शक्कर दान करना चाहिए। यह मास तपस्वियों को प्रिय है। इसमें स्नान से महापातकी भी पाप मुक्त हो जाते हैं। माघ स्नान के विषय में कहा गया है कि जो मनुष्य मरने के उपरांत कष्ट नहीं चाहता, उसे यह स्नान करना चाहिए। माघ मास के दौरान जल में देवताओं का तेज विद्यमान रहता है, इसलिए माघ स्नान को बहुफलप्रदायक कहा गया है। यह मास विष्णु उपासना के साथ शिव उपासना के लिए भी श्रेष्ठ है।
लेखिका जयपुर में धर्मशास्त्र और भाषाविज्ञान की प्रोफेसर हैं।


Tuesday 27 January, 2009

सूफी परम्परा में बसंत

बसंत पंचमी की प्रथा को मुस्लिम समाज में प्रचलित कराने में सूफी संतो ने बड़ा हाथ रहा है। मुग़ल काल के आते आते, बसंत पंचमी सूफी संतों की दरगाहों पर मनाया जाने वाला एक बेहद लोकप्रिय उत्सव बन गया था। निजामुद्दीन औलिया, ख्वाजा बख्तियार काकी और अमीर खुसरो की दरगाहों पर बसंत के मनाये जाने के प्रमाण मिलते हैं। खुसरो ने तो बसंत पर अनेक छंदों की भी रचना की हैं:

ऐसा माना जाता है की चिश्ती सूफियों में बसंत मनाने की परम्परा १२वी शताब्दी से ही शुरू हो गयी थी। कहा जाता है कि दिल्ली के सूफी संत निजामुद्दीन औलिया अपने भांजे ताकिउद्दीन नूह की मौत से इतने रुसवा हुए कि उन्होंने अपने आपको दो महीने के लिए दीन दुनिया से अलग कर लिया। वो अपना समय या तो बंद कमरों में या अपने भांजे की मजार पर बिताने लगे। ऐसा देख उनके अनुयायी अमीर खुसरो अपने पीर के ग़म को दूर करने के उपाय तलाशने लगे। एक दिन खुसरो को सड़क पर कुछ औरतें आती दिखाई दीं, जो काफ़ी सजी धजी थीं और हाथों में फूल लिए हुए गाते हुए जा रही थीं। खुसरो ने उनसे वज़ह पूछी तो उन्होंने बताया कि आज बसंत पंचमी है और वो अपने भगवान को चढावा चढाने जा रहीं हैं। खुसरो को यह अंदाज़ पसंद आया और उन्होंने यह फैसला किया कि उनके भगवान को भी बसंत का चढावा मिलना चाहिए। जल्द ही वो उन औरतों की तरह तैयार हुए और अपने हाथों में सरसों के कुछ फूल लेकर वही गाने गाते हुए उस मजार पर जा पहुंचे जहाँ पीर अकेले बैठे थे। निजामुद्दीन औलिया को कुछ औरतें आती हुई दिखाई दीं पर वो उनमें खुसरो को नहीं पहचान पाये। जब गौर करने पर उन्हें पता चला कि क्या हो रहा है, तो औलिया मुसकुरा पड़े।अन्य सूफियों और औलिया के अनुयायियों को इस दिन का दो महीने से इंतज़ार था। ऐसा होते ही वे सब बसन्त के गीत गाने लगे और प्रतीक के रूप में नूह की मजार पर सरसों के फूल चढाये। कुछ पंक्तियाँ जो शायद उस वक्त कही गयीं होंगी:

सकल बन फूल रही सरसों,
अमवा बोरे, टेसू फूले।
कोयल बोले डार डार, औ गोरी करत सिंगार।
मलिनियाँ गरवा ले आयी करसों
सकल बन फूल रही सरसों

इस पूरे वाकये का असर यह रहा कि बसंत का उत्सव निजामुद्दीन औलिया कि खानेकाह में सालाना जलसे की तरह मनाया जाने लगा। धीरे धीरे यह उत्सव चिश्ती सम्प्रदाय के और केन्द्रों में भी काफी प्रसिध्ध हो गया। इन दरगाहों और खानेकाहों से जुड़ी स्थानीय मुस्लिम जनता भी इस उत्सव में जुड़ने लगी। मुग़ल काल के आते आते यह उत्सव एक सार्वजानिक जलसे के रूप में मनाया जाने लगा था।

(अभी इस विषय पर और भी जानकारी इकठ्ठी कर रहा हूँ। मिलने पर इस पोस्ट को फिर संपादित करूंगा।)

Monday 26 January, 2009

लाहौरी बसंत



पंजाब की ऐतिहासिक राजधानी होने के नाते, बसंत पंचमी लाहौर में काफी धूम धाम से मनाई जाती रही है। यहाँ तक इस त्यौहार को सरकारी सहायता और बहुराष्ट्रीय कंपनियों का सहयोग भी मिलता रहा है। दुनिया भर में बसंत पंचमी को मनाया जाने वाला पतंग महोत्सव काफी प्रसिध्ध है । पिछले कुछ सालों में इस त्यौहार पर पाबंदियां लगाने की मुहीम चल रही है। कारण पतंगबाजी के दौरान होने वाले झगडे जिनमें अकसर खून खराबा हो जाता है। अकसर पतंगों के माझों से बिजली के तार कट जाते हैं, और लोगों के छतों पर से गिरने की शिकायतें आती हैं। हालांकी सरकारों ने इस दिन होने वाली पतंगबाजी को पूरी तरह से प्रतिबंधित नहीं किया है लेकिन, कुछ पाबंदियां ज़रूर लगाई गयी है।

Sunday 25 January, 2009

गणतंत्र खड़ा बाजार में [ व्यंग्य] - आलोक पुराणिक

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गणतंत्र जिसमें सेनसेक्स है, जिसमें मरते किसानों का विदर्भ है। गणतंत्र, जिसमें किसानों का सिंगूर है। गणतंत्र जिसमें महंगी कारों के किस्से हैं। गणतंत्र जिसमें ना कितने हिस्से हैं।

बहुत आसान सा वक्त था, वह पचास-साठ के दशक का, सत्तर के दशक का। चीजें एकदम ब्लैक एंड व्हाईट थीं। पचास-साठ के दशक के अखबारों को देखें, गणतंत्र दिवस के आसपास के आयोजनों को देखें, तो देश विकट आदर्शवाद की लपेटे में दिखता था।

समाजवाद आया ही चाहता है, बस समाजवाद आ ही लिया। सब बराबर, सब समान, बड़े सपने, राजकपूर की शुरुआती रुमानियत का दौर। अमीर बदमाश है, गरीब ईमानदार है। गरीब एक दिन सबको टेकओवर कर लेगा। कोई दुविधा नहीं।

सत्तर के दशक तक कमोबेश यह सब चल गया। फिर ब्लैक एंड व्हाईट में कुछ भी नहीं रहा। जो ब्लैक है, वह कुछ व्हाईट भी है। जो व्हाईट है, उसके ब्लैक होने के किस्से भी हैं।
मिक्सिंग इतनी है कि साफ समझना मुश्किल है।

2008 के आसपास का गणतंत्र इतना कनफ्यूजिंग हो गया है कि कौन कहां है, समझना मुश्किल है। नारायण मूर्ति पूंजीपति होते हुए भी दोहरे स्टैंडर्ड नहीं रखते। सीपीएम वाले नंदीग्राम के बाद पूंजीपतियों के बेहद घटिया एजेंट लगते हैं। एक हाथ में क्रांति का झंडा, दूसरे हाथ में किसानों को मारता हाथ। 2008 के गणतंत्र में भद्दा ही नहीं, अश्लील लगता है कई बार।

उम्मीदों का गणतंत्र जैसे बीपीओ काल सेंटर में दिखता है। कम उम्र में बड़ी आय। पच्चीस साल की उम्र में कार, मकान सब कुछ। इतना कुछ इतना कुछ कि सपनों में अब बड़ी कार से कम कुछ नहीं समाता। पर विकट बेरुखी का यह हाल यह है कि विदर्भ कहां है, इन्हे नहीं मालूम। उम्मीदें सपनों में तबदील होती हैं। सपने इतने बड़े हो जाते हैं कि कई छोटी चीजें छूट जाती हैं। अब सपने अमेरिका से जुड़ते हैं। बहुत कुछ यहां छूट जाता है। उसके लिए अब किसी को कुछ सालता भी नहीं है। सेनसेक्स, सेक्स और मल्टीप्लेक्स-बहुत कुछ इस सब के इर्द गिर्द घूम रहा है।

आईआईटी से हैं वो, आईआईएम से हैं, और ना जाने कहां कहां से हैं वो, पर सारी कहानी सेनसेक्स, सेक्स और मल्टीप्लेक्स के इर्द गिर्द ही है। राष्ट्र निर्माण से चले थे, अब माल निर्माण और मल्टीप्लेक्स निर्माण पर फोकस हो गये हैं।

बुरा नहीं है, पर यह अच्छा भी कितना है, इसका पता नहीं है। पर इससे भी ज्यादा बड़ा सवाल यह है कि कोई विकल्प भी है या नहीं। 2008 के गणतंत्र में विकल्प या तो गायब है, या वह खुद भी एक दुकान है। दुकान अब विकट प्रतीक है। दुकान सिर्फ दुकान तक सीमित नहीं है। मार्केटिंग सिर्फ साबुन, तेल तक सीमित नहीं है। पूंजीवाद तो बाजार पर ही चल रहा है। समाजवाद का भी एक विकट बाजार है। गांधीवाद का बाजार है। खादी जितनी इंटरनेशनल सेमिनारों में जा रही है, उतना तो शायद ही और कोई ड्रेस जाती हो। पर्यावरणवाद विकट बाजार है। बाजार ही बाजार, मिल तो लें। बाल श्रमिकों पर काम करने वाले इधर महंगी कारों पर डिस्कशन करते हैं। मोटी रकम स्विटजरलैंड से आती है। दुकानें इधर भी हैं, दुकानें उधर भी हैं। कबिरा खड़ा बाजार में। इससे ज्यादा सच कुछ नहीं है अब। सब तरफ बाजार है। बाजार का विकल्प भी बाजार से ही होकर जाता है, 2008 का गणतंत्र तो यही बताता है।

Saturday 24 January, 2009

ब्लॉग के मायने

आज कुछ ऐसी ही एक चर्चा हुई, जिस पर लिखना ज़रूरी समझता हूँ। किसी ने पूछा कि ब्लॉग बनाने की क्या ज़रूरत है। क्या ज़रूरत है की किसी को अपने विचार बताये ही जाएँ। अमित जी, जिन्होंने अविरत यात्रा प्रयास कि शुरुआत की है, का कहना था, कि इसके चार उद्देश्य हो सकते हैं। पहला उद्देश्य नितांत स्वान्तः सुखाय- मुझे लिखना है, चाहे कोई पढ़े या ना पढ़े। दूसरा- लोग पढ़ें और शाबाशी दें। अमित जी का मानना है कि ज्यादातर हमारा उद्देश्य पहला या दूसरा ही होता है। बात उसके आगे नहीं बढती है। तीसरा- और हमारी बातों को पढ़े, और उसमें परिवर्तन हो या ऐसा कहें की उसमें यदि परिवर्तन कर सकने का सामर्थ्य हो तो वह परिवर्तन करने के लिए कोई बढे। चौथा कि शायद जो परिवर्तन हम चाहते हैं, उसके लिए एक अकेले हम काफी न हों एक कारवाँ की ज़रूरत हो।

उदाहरण भी सटीक ही दिया'रंग दे बसंती' बना लेना और उस पर वाहवाही बटोर लेना शायद कोई बड़ी बात ना हो। पर हाँ अगर अपनी अभिव्यक्ति से किसी को एक भ्रष्ट रक्षा मंत्री को मार देने को प्रेरित कर दिया या रक्षा मंत्री ही बना दिया तो एक प्रकार की संतुष्टी मिल सकती है।


लेकिन इस ब्लॉग पर तो हम किसी को मारने को कह नहीं रहें हैं, तो उद्देश्य क्या हो सकता है? एक उद्देश्य तो संकलन का रहा- यह स्वान्तः सुखाय भी हो सकता है, और इसलिए भी कि ऐसे लोग जिनकी रूचि परम्पराओं या अध्यात्म में है, उन्हें उनके लायक कुछ मिल सके। और दूसरा उद्देश्य संवाद स्थापित करना है - ऐसे लोगों के बीच में जो पारंपरिक हैं और जो पारंपरिक नहीं हैं, अध्यात्मिक हैं और जो अध्यात्मिक नहीं है।अगर कहीं एक में कुछ कमी है तो शायद दूसरे से पूरी हो जाए। सहयोग मिले तो शायद कारवां ही बन जाए। अगर सुझाव हों तो abhishektripathi@aviratyatra.in पर लिखें



गणतंत्र दिवस (२६ जनवरी )

गणतंत्र दिवस के बारे में
एक महात्मा जी से एक बार मैंने राजनीति में आने की अपनी इच्छा व्यक्त की, तो उन्होंने मुझसे कहा कि मैं क्यों इस पचडे में पड़ना चाहता हूँ। जब मैंने महात्मा जी से कहा कि जब ईमानदार लोग राजनीति में आयेंगे नहीं तो बेईमान तो कब्जा जमायेंगे ही। महात्मा जी ने जवाब दिया कि गूंगी, पंगु और असहाय जनता जब नेताओं को चुनेगी तो बेईमानों का ही तो बोलबाला होगा। राजशाही में तो राजा राजधर्म में दक्ष रहते थे, जन्म से ही राजधर्म की शिक्षा दी जाती थी। फैसले सर्वहित और न्याय कि कसौटी पर लिए जाते थे, इस पर नहीं कि चुनावों में उसका क्या असर पड़ेगा। और इतने पर अगर राजा निरंकुश हो जाए तो? महात्मा जी का मानना था कि जनता ऐसे राजा को उठा फेंकेगी। मतलब, वीटो जनता के हाथ में।

इस चर्चा के बाद एक बार सोच में ज़रूर पड़ गया था, कि कहीं ऐसा तो नहीं कि लोकतंत्र में हमारी मान्यता केवल रुढिवादी ही तो नहीं। आज के नेताओं का राजधर्म से दूर का वास्ता भी नहीं है। धर्म का निर्धारण न्याय कि अवधारणा से नहीं पर वोट की संख्या से होता है। और जनता भी चुनती उन्हीं को जो धनबल और बाहुबल से समृध्ध हो, चरित्रबल प्रायः अयोग्यता मानी जाती है।

ऐसे में यह मान लेना कि लोकतंत्र ही सबसे वाजिब शासन व्यवस्था है, क्या एक रुढिवादी मान्यता ही नहीं? वैसे भी लोकतंत्र का इतिहास बहुत पुराना नहीं है। अभी ३०० साल ही तो हैं। और अगर लोकतंत्र वास्तव में शासन की सबसे विकसित व्यवस्था है, तो शासन करने वाली जनता अपने वीटो का इस्तेमाल क्यों नहीं करती? जनता खामोश क्यों है? आज के गणतंत्र दिवस पर गणतंत्र की ही मान्यता पर विचार करते हैं।

Sunday 18 January, 2009

माघ पूर्णिमा

अभी परम्पराओं और मान्यताओं के संकलन प्रक्रिया में हूँ. कोशिश रहेगी कि ९ फ़रवरी तक कुछ लिख सकूँ.

बसंत पंचमी

कुछ नया लिखने के पूर्व, जो लिखा लिखाया है वही प्रस्तुत करता हूँ...
विकिपीडिया से
बसंत साहित्य
अभी परम्पराओं और मान्यताओं के संकलन प्रक्रिया में हूँ. कोशिश रहेगी कि 30 जनवरी तक कुछ लिख सकूँ.

सोमवती अमावस्या (२६ जनवरी २००९)

सोमवार को पड़ने वाली अमावस्या को सोमवती अमावस्या कहा जाता है. विवाहित स्त्रियों द्वारा इस दिन अपने पतियों के दीर्घायु कामना के लिए व्रत का विधान है. कुछ परम्पराओं में इस दिन विवाहित स्त्रियों द्वारा पीपल के वृक्ष की दूध, जल, पुष्प, अक्षत, चन्दन इत्यादि से पूजा और वृक्ष के चारों ओर १०८ बार धागा लपेट कर परिक्रमा करने का विधान है.

कुछ एक अन्य परम्पराओं में भँवरी देने का विधान है. धान, पान और खड़ी हल्दी को मिला कर उसे विधान पूर्वक तुलसी के पेड़ को चढाया जाता है.

इस दिन पवित्र नदियों में स्नान का भी विशेष महत्व समझा जाता है. कहा जाता है कि महाभारत में भीष्म ने युधिस्ठिर को इस दिन का महत्व समझाते हुए कहा था कि, इस दिन पवित्र नदियों में स्नान करने वाला मनुष्य समृद्ध, स्वस्थ्य और सभी दुखों से मुक्त होगा. ऐसा भी माना जाता है कि स्नान करने से पितरों कि आत्माओं को शांति मिलती है.

सोमवती अमावस्या कथा (१)

सोमवती अमावस्या से सम्बंधित अनेक कथाएँ प्रचलित हैं। परंपरा है कि सोमवती अमावस्या के दिन इन कथाओं को विधिपूर्वक सुना जाता है। उत्तर प्रदेश और बिहार में प्रचलित इन्हीं कथाओं में से एक कथा आगरा में रहने वाली श्रीमती नीलम मिश्र ने हमारे साथ बाँटनें के लिए भेजी है। भोजपुरी में कही जाने वाली इस कथा को हमने खड़ी बोली में लिखने कि कोशिश की है।

"एक गरीब ब्रह्मण परिवार था, जिसमे पति, पत्नी के अलावा एक पुत्री भी थी। पुत्री धीरे धीरे बड़ी होने लगी. उस लड़की में समय के साथ सभी स्त्रियोचित गुणों का विकास हो रहा था। लड़की सुन्दर, संस्कारवान एवं गुणवान भी थी, लेकिन गरीब होने के कारण उसका विवाह नहीं हो पा रहा था. एक दिन ब्रह्मण के घर एक साधू पधारे, जो कि कन्या के सेवाभाव से काफी प्रसन्न हुए। कन्या को लम्बी आयु का आशीर्वाद देते हुए साधू ने कहा की कन्या के हथेली में विवाह योग्य रेखा नहीं है। ब्राह्मण दम्पति ने साधू से उपाय पूछा कि कन्या ऐसा क्या करे की उसके हाथ में विवाह योग बन जाए। साधू ने कुछ देर विचार करने के बाद अपनी अंतर्दृष्टि से ध्यान करके बताया कि कुछ दूरी पर एक गाँव में सोना नाम की धूबी जाती की एक महिला अपने बेटे और बहू के साथ रहती है, जो की बहुत ही आचार- विचार और संस्कार संपन्न तथा पति परायण है। यदि यह कन्या उसकी सेवा करे और वह महिला इसकी शादी में अपने मांग का सिन्दूर लगा दे, उसके बाद इस कन्या का विवाह हो तो इस कन्या का वैधव्य योग मिट सकता है। साधू ने यह भी बताया कि वह महिला कहीं आती जाती नहीं है। यह बात सुनकर ब्रह्मणि ने अपनी बेटी से धोबिन कि सेवा करने कि बात कही।

कन्या तडके ही उठ कर सोना धोबिन के घर जाकर, सफाई और अन्य सारे करके अपने घर वापस आ जाती। सोना धोबिन अपनी बहू से पूछती है कि तुम तो तडके ही उठकर सारे काम कर लेती हो और पता भी नहीं चलता। बहू ने कहा कि माँजी मैंने तो सोचा कि आप ही सुबह उठकर सारे काम ख़ुद ही ख़तम कर लेती हैं। मैं तो देर से उठती हूँ। इस पर दोनों सास बहू निगरानी करने करने लगी कि कौन है जो तडके ही घर का सारा काम करके चला जाता हा। कई दिनों के बाद धोबिन ने देखा कि एक एक कन्या मुँह अंधेरे घर में आती है और सारे काम करने के बाद चली जाती है। जब वह जाने लगी तो सोना धोबिन उसके पैरों पर गिर पड़ी, पूछने लगी कि आप कौन है और इस तरह छुपकर मेरे घर की चाकरी क्यों करती हैं। तब कन्या ने साधू द्बारा कही गई साड़ी बात बताई। सोना धोबिन पति परायण थी, उसमें तेज था। वह तैयार हो गई। सोना धोबिन के पति थोड़ा अस्वस्थ थे। उसमे अपनी बहू से अपने लौट आने तक घर पर ही रहने को कहा। सोना धोबिन ने जैसे ही अपने मांग का सिन्दूर कन्या की मांग में लगाया, उसके पति गया। उसे इस बात का पता चल गया। वह घर से निराजल ही चली थी, यह सोचकर की रास्ते में कहीं पीपल का पेड़ मिलेगा तो उसे भँवरी देकर और उसकी परिक्रमा करके ही जल ग्रहण करेगी.उस दिन सोमवती अमावस्या थी। ब्रह्मण के घर मिले पूए- पकवान की जगह उसने ईंट के टुकडों से १०८ बार भँवरी देकर १०८ बार पीपल के पेड़ की परिक्रमा की, और उसके बाद जल ग्रहण किया। ऐसा करते ही उसके पति के मुर्दा शरीर में कम्पन होने लगा।

पीपल के पेड़ में सभी देवों का वास होता है। अतः, सोमवती अमावस्या के दिन से शुरू करके जो व्यक्ति हर अमावस्या के दिन भँवरी देता है, उसके सुख और सौभग्य में वृद्धि होती है। जो हर अमावस्या को न कर सके, वह सोमवार को पड़ने वाली अमावस्या के दिन १०८ वस्तुओं कि भँवरी देकर सोना धोबिन और गौरी-गणेश कि पूजा करता है, उसे अखंड सौभाग्य की प्राप्ति होती है।

ऐसी परम्परा है कि पहली सोमवती अमावस्या के दिन धान, पान, हल्दी, सिन्दूर और सुपाड़ी की भँवरी दी जाती है। उसके बाद की सोमवती अमावस्या को अपने सामर्थ्य के हिसाब से फल, मिठाई, सुहाग सामग्री, खाने कि सामग्री इत्यादि की भँवरी दी जाती है। भँवरी पर चढाया गया सामान किसी सुपात्र ब्रह्मण, ननद या भांजे को दिया जा सकता है। अपने गोत्र या अपने से निम्न गोत्र में वह दान नहीं देना चाहिए।

अभी यह पोस्ट अधूरा है. कोशिश रहेगी कि २६ जनवरी के पहले पूरा हो जाए.

मान्यताओं पर बहस

गाहे बगाहे अक्सर ही परम्पराओं से हमारी मुठभेड़ होती ही रहती है. ऐसा नहीं की इसमें कुछ नया है. मेरे ख्याल से बदलते परिवेश ने हमेशा ही स्थापित मान्यताओं की अहमितयत को चुनौती दी है. अक्सर ही होता है की व्यक्तिगत मान्यताएं सामाजिक मान्यताओं से लड़ बैठती हैं. स्थिति और भी विकट हो सकती है जब दो सामाजिक मान्यताओं में ही मतभेद हो. सवाल उठता है कि क्या करें? तर्क -वितर्क अकसर निरर्थक ही सिद्ध होते हैं. मान्यताओं के समर्थको का कहना होता है कि मान्यताओं का विज्ञान केवल तर्क मात्र से थोड़े ही चलता है. उसके तो अलग ही नियम हैं. इस तर्क में दम तो है. तर्क करने वालों से उनकी ही मान्यताओं का आधार पूछें, तो जवाब शायद उनके पास भी न हो. लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं की हम तर्क ही छोड़ दें? तो यही रहा आज की चर्चा का विषय. मान्यताओं पर बहस कहाँ तक जायज़ है? कोशिश रहेगी ऐसी मान्यताओं को चर्चा का विषय बनाने की जहाँ टकराव दीखता है.

बस इतना ही नहीं, आने वाले कुछ दिनों में कोशिश करूंगा की हमारे समाज में व्याप्त मान्यताओं का निरपेक्ष संकलन कर सकूँ. मान्यताएं जो परम्पराओं से जुड़ी हैं, मान्यताएं जो त्योहारों से जुड़ी हैं, मान्यताएं जो दिन प्रतिदिन के व्यवहार से जुड़ी हैं, मान्यताएं जिनका आधार धार्मिक या पंथ विशेष से है और मान्यताएं जो पंथनिरपेक्ष हैं. सुझावों और सहयोग की अपेक्षा है.