Saturday 24 January, 2009

ब्लॉग के मायने

आज कुछ ऐसी ही एक चर्चा हुई, जिस पर लिखना ज़रूरी समझता हूँ। किसी ने पूछा कि ब्लॉग बनाने की क्या ज़रूरत है। क्या ज़रूरत है की किसी को अपने विचार बताये ही जाएँ। अमित जी, जिन्होंने अविरत यात्रा प्रयास कि शुरुआत की है, का कहना था, कि इसके चार उद्देश्य हो सकते हैं। पहला उद्देश्य नितांत स्वान्तः सुखाय- मुझे लिखना है, चाहे कोई पढ़े या ना पढ़े। दूसरा- लोग पढ़ें और शाबाशी दें। अमित जी का मानना है कि ज्यादातर हमारा उद्देश्य पहला या दूसरा ही होता है। बात उसके आगे नहीं बढती है। तीसरा- और हमारी बातों को पढ़े, और उसमें परिवर्तन हो या ऐसा कहें की उसमें यदि परिवर्तन कर सकने का सामर्थ्य हो तो वह परिवर्तन करने के लिए कोई बढे। चौथा कि शायद जो परिवर्तन हम चाहते हैं, उसके लिए एक अकेले हम काफी न हों एक कारवाँ की ज़रूरत हो।

उदाहरण भी सटीक ही दिया'रंग दे बसंती' बना लेना और उस पर वाहवाही बटोर लेना शायद कोई बड़ी बात ना हो। पर हाँ अगर अपनी अभिव्यक्ति से किसी को एक भ्रष्ट रक्षा मंत्री को मार देने को प्रेरित कर दिया या रक्षा मंत्री ही बना दिया तो एक प्रकार की संतुष्टी मिल सकती है।


लेकिन इस ब्लॉग पर तो हम किसी को मारने को कह नहीं रहें हैं, तो उद्देश्य क्या हो सकता है? एक उद्देश्य तो संकलन का रहा- यह स्वान्तः सुखाय भी हो सकता है, और इसलिए भी कि ऐसे लोग जिनकी रूचि परम्पराओं या अध्यात्म में है, उन्हें उनके लायक कुछ मिल सके। और दूसरा उद्देश्य संवाद स्थापित करना है - ऐसे लोगों के बीच में जो पारंपरिक हैं और जो पारंपरिक नहीं हैं, अध्यात्मिक हैं और जो अध्यात्मिक नहीं है।अगर कहीं एक में कुछ कमी है तो शायद दूसरे से पूरी हो जाए। सहयोग मिले तो शायद कारवां ही बन जाए। अगर सुझाव हों तो abhishektripathi@aviratyatra.in पर लिखें



गणतंत्र दिवस (२६ जनवरी )

गणतंत्र दिवस के बारे में
एक महात्मा जी से एक बार मैंने राजनीति में आने की अपनी इच्छा व्यक्त की, तो उन्होंने मुझसे कहा कि मैं क्यों इस पचडे में पड़ना चाहता हूँ। जब मैंने महात्मा जी से कहा कि जब ईमानदार लोग राजनीति में आयेंगे नहीं तो बेईमान तो कब्जा जमायेंगे ही। महात्मा जी ने जवाब दिया कि गूंगी, पंगु और असहाय जनता जब नेताओं को चुनेगी तो बेईमानों का ही तो बोलबाला होगा। राजशाही में तो राजा राजधर्म में दक्ष रहते थे, जन्म से ही राजधर्म की शिक्षा दी जाती थी। फैसले सर्वहित और न्याय कि कसौटी पर लिए जाते थे, इस पर नहीं कि चुनावों में उसका क्या असर पड़ेगा। और इतने पर अगर राजा निरंकुश हो जाए तो? महात्मा जी का मानना था कि जनता ऐसे राजा को उठा फेंकेगी। मतलब, वीटो जनता के हाथ में।

इस चर्चा के बाद एक बार सोच में ज़रूर पड़ गया था, कि कहीं ऐसा तो नहीं कि लोकतंत्र में हमारी मान्यता केवल रुढिवादी ही तो नहीं। आज के नेताओं का राजधर्म से दूर का वास्ता भी नहीं है। धर्म का निर्धारण न्याय कि अवधारणा से नहीं पर वोट की संख्या से होता है। और जनता भी चुनती उन्हीं को जो धनबल और बाहुबल से समृध्ध हो, चरित्रबल प्रायः अयोग्यता मानी जाती है।

ऐसे में यह मान लेना कि लोकतंत्र ही सबसे वाजिब शासन व्यवस्था है, क्या एक रुढिवादी मान्यता ही नहीं? वैसे भी लोकतंत्र का इतिहास बहुत पुराना नहीं है। अभी ३०० साल ही तो हैं। और अगर लोकतंत्र वास्तव में शासन की सबसे विकसित व्यवस्था है, तो शासन करने वाली जनता अपने वीटो का इस्तेमाल क्यों नहीं करती? जनता खामोश क्यों है? आज के गणतंत्र दिवस पर गणतंत्र की ही मान्यता पर विचार करते हैं।