आज कुछ ऐसी ही एक चर्चा हुई, जिस पर लिखना ज़रूरी समझता हूँ। किसी ने पूछा कि ब्लॉग बनाने की क्या ज़रूरत है। क्या ज़रूरत है की किसी को अपने विचार बताये ही जाएँ। अमित जी, जिन्होंने अविरत यात्रा प्रयास कि शुरुआत की है, का कहना था, कि इसके चार उद्देश्य हो सकते हैं। पहला उद्देश्य नितांत स्वान्तः सुखाय- मुझे लिखना है, चाहे कोई पढ़े या ना पढ़े। दूसरा- लोग पढ़ें और शाबाशी दें। अमित जी का मानना है कि ज्यादातर हमारा उद्देश्य पहला या दूसरा ही होता है। बात उसके आगे नहीं बढती है। तीसरा- और हमारी बातों को पढ़े, और उसमें परिवर्तन हो या ऐसा कहें की उसमें यदि परिवर्तन कर सकने का सामर्थ्य हो तो वह परिवर्तन करने के लिए कोई बढे। चौथा कि शायद जो परिवर्तन हम चाहते हैं, उसके लिए एक अकेले हम काफी न हों एक कारवाँ की ज़रूरत हो।
उदाहरण भी सटीक ही दिया। 'रंग दे बसंती' बना लेना और उस पर वाहवाही बटोर लेना शायद कोई बड़ी बात ना हो। पर हाँ अगर अपनी अभिव्यक्ति से किसी को एक भ्रष्ट रक्षा मंत्री को मार देने को प्रेरित कर दिया या रक्षा मंत्री ही बना दिया तो एक प्रकार की संतुष्टी मिल सकती है।
लेकिन इस ब्लॉग पर तो हम किसी को मारने को कह नहीं रहें हैं, तो उद्देश्य क्या हो सकता है? एक उद्देश्य तो संकलन का रहा- यह स्वान्तः सुखाय भी हो सकता है, और इसलिए भी कि ऐसे लोग जिनकी रूचि परम्पराओं या अध्यात्म में है, उन्हें उनके लायक कुछ मिल सके। और दूसरा उद्देश्य संवाद स्थापित करना है - ऐसे लोगों के बीच में जो पारंपरिक हैं और जो पारंपरिक नहीं हैं, अध्यात्मिक हैं और जो अध्यात्मिक नहीं है।अगर कहीं एक में कुछ कमी है तो शायद दूसरे से पूरी हो जाए। सहयोग मिले तो शायद कारवां ही बन जाए। अगर सुझाव हों तो abhishektripathi@aviratyatra.in पर लिखें।
Saturday, 24 January 2009
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सबसे पहले तो मान्यता में मेरे विचारों का उल्लेख करने के लिए धन्यवाद। लेकिन मेरी कुछ आपत्तियां भी हैं। अपेक्षा हैं कि आप इन्हें अन्यथा नहीं लेंगे। अविरत यात्रा किसी एक व्यक्ति के प्रयासॊं का परिणाम नहीं है। मैं तो इस सागर की ठीक वैसी एक बूंद हूं जैसे की आप खुद हैं। दूसरी बात यह कि एक अच्छे मित्र का फर्ज है कि वह अपने दोस्त को प्रसिद्धि परायण होने से बचाए।
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