गणतंत्र दिवस के बारे में
एक महात्मा जी से एक बार मैंने राजनीति में आने की अपनी इच्छा व्यक्त की, तो उन्होंने मुझसे कहा कि मैं क्यों इस पचडे में पड़ना चाहता हूँ। जब मैंने महात्मा जी से कहा कि जब ईमानदार लोग राजनीति में आयेंगे नहीं तो बेईमान तो कब्जा जमायेंगे ही। महात्मा जी ने जवाब दिया कि गूंगी, पंगु और असहाय जनता जब नेताओं को चुनेगी तो बेईमानों का ही तो बोलबाला होगा। राजशाही में तो राजा राजधर्म में दक्ष रहते थे, जन्म से ही राजधर्म की शिक्षा दी जाती थी। फैसले सर्वहित और न्याय कि कसौटी पर लिए जाते थे, इस पर नहीं कि चुनावों में उसका क्या असर पड़ेगा। और इतने पर अगर राजा निरंकुश हो जाए तो? महात्मा जी का मानना था कि जनता ऐसे राजा को उठा फेंकेगी। मतलब, वीटो जनता के हाथ में।
इस चर्चा के बाद एक बार सोच में ज़रूर पड़ गया था, कि कहीं ऐसा तो नहीं कि लोकतंत्र में हमारी मान्यता केवल रुढिवादी ही तो नहीं। आज के नेताओं का राजधर्म से दूर का वास्ता भी नहीं है। धर्म का निर्धारण न्याय कि अवधारणा से नहीं पर वोट की संख्या से होता है। और जनता भी चुनती उन्हीं को जो धनबल और बाहुबल से समृध्ध हो, चरित्रबल प्रायः अयोग्यता मानी जाती है।
ऐसे में यह मान लेना कि लोकतंत्र ही सबसे वाजिब शासन व्यवस्था है, क्या एक रुढिवादी मान्यता ही नहीं? वैसे भी लोकतंत्र का इतिहास बहुत पुराना नहीं है। अभी ३०० साल ही तो हैं। और अगर लोकतंत्र वास्तव में शासन की सबसे विकसित व्यवस्था है, तो शासन करने वाली जनता अपने वीटो का इस्तेमाल क्यों नहीं करती? जनता खामोश क्यों है? आज के गणतंत्र दिवस पर गणतंत्र की ही मान्यता पर विचार करते हैं।
Saturday, 24 January 2009
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